" पता ही नहीं चला ....."
हम तो मौहब्बत की पेश - ए - ख़िदमत में
अख़लाक़ की निस्बतों को तराश रहे थे .....!
और वो ना जाने कब
एक रोते बच्चे को
हँसा कर चला गया
पता ही नहीं चला .......!!
जाते जाते एक अबला को
ठोकर लगने से बचा गया
पलट कर देखा तो
एक राह गुज़रते बुज़ुर्ग को
काँधा दे कर चला गया
पता ही नहीं चला .......!!
वो चला जा रहा था
अठखेलियाँ किये जा रहा था
रास्ते के लोग उसे
पागल कह दिया करते थे
थोड़ा मैला सा रहता था वो
कपड़े फटे हुए थे उसके .....!
मग़र हम तो मौहम्मद की नाव - ए - मन्नत में
तसल्ली से बैठ कर तस्बी के दाने गिन रहे थे ...!
ईलाही की चादर में ख़म ना पड़ जाए
इसलिए दरग़ाह को सुबह शाम बुहार रहे थे ....!
और वो ना जाने कब
सुनसान गलियारे में पड़े
एक बे क़फ़न मुर्दे को
अपना लिबास पहना कर चला गया
पता ही नहीं चला ...........!!
पास ही एक क़बूतर दर्द से फड़फड़ा रहा था
हम रात भर उसके अच्छे होने की दुआ
अपने ख़ुदा से माँगते रहे
और वो ना जाने कब
उस क़बूतर के ज़ख्म पर
मरहम लगा कर चला गया
पता ही नहीं चला .................!!
बहुत ग़ुरूर से चलता है कम्बख़त
अकड़ के मारे आँख तक नहीं मिलाता
मस्ज़िद के पास से गुज़रता है रोज़
मग़र ख़ुदा के नज़दीक तक नहीं आता ....!
बदज़ात .... लगा रहता है दिन भर
चींटियों के घर बनाने में .............!!
कब सोया कब जागा
कब खाया कब नहाया
पता ही नहीं चला....................!!
अल्लाह बचाये ऐसे ग़ुनाहगारों से ....!!!!
********* विक्रम चौधरी **********